दिल्ली मेट्रो में मैंने प्रायः युवाओं को अंग्रेजी उपन्यास पढ़ते हुए देखा है पर विरलय ही किसी को हिंदी उपन्यास या कोई हिंदी पुस्तक पढ़ते देखा हो। पता नहीं यह हिंदी के प्रति उनकी उदासीनता का परिचायक है या हिंदी उपन्यास की शून्यता का? वैसे तो बीते कुछ वर्षों में हिंदी लेखकों और पाठकों की संख्या में साधारण बढ़ोतरी देखने को मिली है पर अंग्रेजी पाठकों और लेखकों की तुलना में आज भी दोनों ही नगण्य हैं। इसके पीछे क्या कारण हो सकता है? अंग्रेजी शासनकाल के समय जब भारत के अधिकतर सरकारी कार्य अंग्रेजी भाषा में किये जाते थे ऐसे विकट दौर में भी देश में मुंशी प्रेमचंद, फणीश्वरनाथ रेणु और रामधारी सिंह दिनकर जैसे नगीने हिंदी साहित्य को जगमगा रहे थे। परन्तु आज जब अंग्रेजी और अंग्रेजियत से स्वतंत्रता प्राप्त किये सात दशक से भी अधिक समय बीत गया, जाने क्यों हिंदी साहित्य मृतप्राय सा प्रतीत होता है। केवल हिंदी दिवस के दिन हिंदी के उत्थान के लिए सरकार द्वारा कुछ मिथ्या वचन बोल कर खानापूर्ति कर दिया जाता है।
बीते पांच दशकों से हिंदी साहित्य के नाम पर केवल अजेंडा और प्रोपेगंडा चलाने वाली पुस्तकें आती रही जिनका आम जनमानस से कोई सरोकार नहीं था और देखते ही देखते हिंदी साहित्य शून्यता की और बढ़ता गया। बीते एक दशक में “नई वाली हिंदी” के नाम पर हिंदी साहित्य के पुनरुत्थान का प्रयास किया जाने की चेष्टा तो की जा रही है पर अभी भी एक बहुत बड़ा युवा वर्ग इस “नई वाली हिंदी” से अपरिचित है। प्रश्न उठता है की अब जब हिंदी को पुनः उठाने का प्रयास चल रहा है तो भारत का युवा इसके प्रति नीरस क्यों है? ऐसा क्या हुआ जो पाठकगण हिंदी साहित्य से निरंतर विमुख होते जा रहे हैं? क्या हिंदी के प्रति उनमें हीन भावना है? क्या अंग्रेजी पढ़ना उनके लिए एक दिखावा करने का माध्यम है? क्या मेट्रो में हिंदी साहित्य पढ़ने से पाठकों के संभ्रांत होने पर कोई कुप्रभाव पड़ जाएगा?
क्या उन्हें इस बात का डर है की हिंदी साहित्य पढ़ने से वे स्वयं को अंग्रेजी माध्यम वाले तथाकथित विकसित वर्ग से कटा हुआ पाएंगे? दुर्भाग्य यह है की अंग्रेजी साहित्य पढ़ना बीते दशकों में ज्ञान का पर्याय बन चुका है। भारतीय माँ बाप अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से ही पढ़ाना पसंद करते हैं। उनके लिए बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाना प्रतिष्ठा का प्रश्न हो गया है। बहुत से घरों के तथाकथित शिक्षित माँ बाप अपने बच्चो को अंग्रेजी उपन्यास लाकर देते हैं ताकि वे बुद्धिजीवी की श्रेणी में आ सके। एक बहुत बड़ा भ्रम भारतीयों ने पाल लिया है की अंग्रेजी पढ़ने से आप बुद्धिजीवी कहलाने लग जायेंगे। यदि कोई परिवार ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन करके शहरों की तरफ आता है तो स्वयं को पूर्ण रूप से शहरी दिखाने के लिए अंग्रेजियत अपनाने का पूरा प्रयास करता है। इन छोटी मगर मोटी बातों के दूरगामी प्रभाव दिखते हैं और इनमे से एक होता है हिंदी साहित्य के प्रति उदासीनता, हेय दृष्टी और घृणा।
हालाँकि सब कुछ नकारात्मक ही नहीं कुछ सकारात्मक भी देखने को मिल रहा है। पिछले कुछ वर्षों से हिंदी साहित्यकारों के एक एक नए वर्ग ने हिंदी को पुनः गौरवशाली बनाने का बागडोर संभाला है। यह बहुत ही संतोषजनक और आशा से परिपूर्ण बात है की कुछ युवा हिंदी साहित्य को लेकर धीर और गंभीर है। आए दिन सोशल मीडिया के भिन्न पटल पर वे अपनी बात रखते हैं। हम ऐसे दो हिंदी साहित्यकारों के बारे में बात करेंगे। इससे पहले हम अपने पाठकों के लिए पाँच हिंदी उपन्यासों को सुझाना चाहेंगे जो हिंदी साहित्य के प्रति उनकी उदासीनता को दूर करेगा और हिंदी साहित्य के प्रति उनके विश्वास को पुनः स्थापित करेगा।
पाँच हिंदी पुस्तकें/उपन्यास जो आपको अवश्य पढ़नी चाहिए
रश्मिरथी (रामधारी सिंह दिनकर ) - 1954 में आई रश्मिरथी अपने आप में एक विशिष्ट रचना है क्योंकि यह महाकाव्य महाभारत के पात्र कर्ण को केंद्र में रखकर लिखी गयी एक काव्य है। इसके रचयिता राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने कर्ण के साथ हुए अन्याय को अपनी विशिष्ट शैली में काव्यबद्ध किया है।
राग दरबारी (श्रीलाल शुक्ल) - 1970 में आई राग दरबारी आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उस समय था। कटाक्ष का प्रयोग करने में श्रीलाल शुक्ल का कोई सानी नहीं। समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, दोहरा रवैया और पाखंड को उन्होंने बड़े ही चपलता से उजागर किया है।
मैला आँचल (फणीश्वरनाथ रेणु) - 1954 में आई मैला आँचल भारत के सुदूर क्षेत्रों में रहने वाले दीन हीन लोगों की स्थिति को बहुत ही भावपूर्ण तरीके से झलकता है। स्वतंत्रता पूर्व और उपरांत भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में कितना परिवर्तन आया या कितना नहीं आया, उसको बहुत ही जीवटता से फणीश्वर नाथ रेणु ने अपनी कालजयी रचना में दिखाया है।
अभी तक तो हमने बात की उस युग के साहित्यकारों की जो स्वतंत्रता के पूर्व जन्मे थे और उनके लेखनी में स्वतंत्रता के इर्द गिर्द रचनाएँ हुआ करती थी। आगे हम आज के युग के लेखकों की बात करेंगे जो स्वतंत्र भारत में जन्मे और आज के भारत की समस्या और चुनौतियों को अपने उपन्यास के माध्यम से नए युग के पाठक वर्ग के बीच ला रहे हैं।
परत (सर्वेश कुमार तिवारी) - एक ऐसा उपन्यास जिसमे आपको कभी प्रेमचंद तो कभी रेणु की रचनाओं की झलक मिल जाएगी। कुल मिलाकर ग्रामीण परिवेश को जिस सुंदरता से दोनों अपने उपन्यासों में दर्शाते थे कुछ वैसी ही सुंदरता से सर्वेश कुमार तिवारी ने अपनी उपन्यास परत में ग्रामीण जीवन को जीवंत कर दिया है। इसके अतिरिक्त एक बहुत ही ज्वलंत मुद्दे “लव जिहाद” को उन्होंने कहानी के केंद्र में रखा है जिसके लिए वह प्रशंसा के पात्र है।
डार्क हॉर्स (नीलोत्पल मृणाल) - आज के समय में युवाओं की महत्वाकांक्षाओं और कुछ बड़ा कर गुजरने की लालसा को नीलोत्पल मृणाल ने बड़ी सहजता से अपनी उपन्यास डार्क हॉर्स में दर्शाया है। प्रशासनिक सेवा में चयन का सपना पाले युवा किन मानसिक तनावों से गुजरता है उसको बहुत ही सुंदरता से लिखा गया है इस उपन्यास के माध्यम से।
हमें आशा और विश्वास है की इन कृतियों को पढ़ के आपके अंदर हिंदी साहित्य को लेकर पुनः प्रेम और सम्मान जागृत होगा और हिंदी पुनः अपने स्वर्णिम युग की ओर अग्रसर होगी।
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